राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान : असल सवाल नजरिया का है

।। योगेंद्र यादव ।। की कलम से

दो अक्तूबर को राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान शुरू हो रहा है. सो, मैंने रावणजी व वेजवाडा विल्सन को फोन लगाया कि इसके बारे में उनसे पूछूं कि आखिर वे क्या सोचते हैं. रावण (रा’वन नहीं) जी का पूरा नाम है दर्शन रत्न रावण. उन्होंने आदि-धर्म समाज नाम से एक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन चलाया है.

इसका उद्देश्य सफाई कामगार समुदाय की नयी पीढ़ियों को मैला साफ करने जैसे अवमानना भरे काम से दूर रखना है. आदि-धर्म समाज ने नशामुक्ति और शिक्षा (विशेषकर लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने) के प्रति जागरूकता फैलाने में बेहतरीन काम किया है. रावणजी की तरह वेजवाड़ा विल्सन भी ‘सफाई कर्मचारी’ परिवार से हैं. उन्होंने सफाई कर्मचारी आंदोलन चलाया है. हाथ से मैला साफ करने जैसे अमानवीय चलन को खत्म करने में इस आंदोलन ने अग्रणी भूमिका निभायी है.

दोनों ही सरकारी स्वच्छता अभियान को लेकर खासे उत्साहित नहीं हैं. विल्सन कहते हैं, ‘यह यूपीए के निर्मल भारत अभियान का ही नया संस्करण है.’ उनको लगता है कि यह पूरा खेल उत्पादकों (जो शौचालय बनाते हैं) और उपभोक्ताओं (जो साफ-सफाई की सुविधा का लाभ उठाते हैं) के बीच का है. इस खेल में ‘सेवा प्रदान करनेवाला’ (सर्विस प्रोवाइडर) तो कहीं है ही नहीं. रावणजी को इस बात का रंज है कि स्वच्छता अभियान के शुभारंभ के लिए वाल्मीकि समुदाय की बस्ती को चुना गया.

उन्हें लगता है कि ‘यह वाल्मीकि समुदाय को कलंकित बताने का नया तरीका है. फिर से बताया जा रहा है कि वाल्मीकि समुदाय हीन समङो जानेवाले पेशे से जुड़ा है.’रावणजी व विल्सन को सरकारी स्वच्छता अभियान को लेकर जो आशंकाएं हैं, उनसे मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं. आंदोलनकारियों की आलोचना-बुद्धि ज्यादा प्रखर होती है. लाला किले से जब प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान और लड़कियों के लिए शौचालय बनवाने की बात कही, तो यह संदेश लोगों के दिल को छू गया. फिर इस बात को लेकर रंज क्यों पालना? हर सरकारी कार्यक्र म में कुछ न कुछ तमाशे और प्रहसन के तत्व जुड़े रहते हैं. बीते हफ्ते हमने देखा ही कि दिल्ली में किस तरह से कुछ ‘कूड़ा’ विधिवत बिखेड़ा गया, ताकि मंत्री जी उसकी ‘सफाई’ करें. तो भी, इस अभियान के जरिये देशहित के एक ऐसे मुद्दे पर ध्यान खींचने में मदद मिल सकती है.सवाल यह नहीं कि सरकार स्वच्छ भारत अभियान क्यों शुरू कर रही है.

असल सवाल यह है कि स्वच्छता के पूरे मुद्दे को लेकर सरकार का नजरिया क्या है. मेरे मित्र दर्शन रत्न रावण और वेजवाड़ा विल्सन की आपत्तियों को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए. स्वच्छता अभियान के केंद्र में वे लोग होने चाहिए, जिन्हें भारत को साफ-सुथरा रखने का काम करना है. जिन लोगों ने अब तक भारत को साफ-सुथरा रखने का बोझ अपने माथे पर ढोया है, उन्हें गरिमा भरी जिंदगी कैसे मयस्सर हो- स्वच्छता अभियान का जोर इस बात पर होना चाहिए. सफाई का सवाल चार बातों से जुड़ा है और सरकारी अभियान की गंभीरता का मूल्यांकन का इन्हीं चार बातों को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए. शुरुआत सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर मौजूद गंदगी की सफाई से की जाये, क्योंकि यह गंदगी ऐन हमारी आंखों पर चढ़ कर हमारा मजाक उड़ाती है.

लेकिन, इस मोरचे पर आशंका प्रतीक-पूजा में फंसे रह जाने की है. सफाई का भव्य तमाशा ज्यादा देर टिकता नहीं. न ही उससे बहुत कुछ हासिल हो पाता है. कैमरे की नजर में आने के लिए कोई वीआइपी एक चुनी हुई जगह पर झाड़ू उठा कर कुछ बहारन बटोरे, तो इससे साफ-सफाई की दिशा में कुछ खास नहीं होनेवाला. यहां मुख्य बात है, सफाई के काम में ज्यादा से ज्यादा लोगों को ज्यादा से ज्यादा समय तक जोड़े रखना. दूसरी बात पर्यावरण को साफ रखने की है. किसी महानगर में घुसो, तो उसके कोने-अंतरे में ठोस कचरे के पहाड़ खड़े दिखते हैं. जलागार एकदम से सड़ांध मारते हैं. इन दो की तुलना में वायु-प्रदूषण कुछ कम नजर आता है. यदि राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान पर्यावरण प्रदूषण के कठिन सवाल से कन्नी काट ले, तो यही कहा जायेगा कि तिनके की ओट में पहाड़ छुपाने का काम किया जा रहा है.

पर्यावरणीय प्रदूषण को दूर करना बहुत बड़ी चुनौती है.मिसाल के लिए, क्या हम मान सकते हैं कि कूड़ा बीनने के काम में लगे लोग या फिर वे लोग, जिन्हें चलती भाषा में कबाड़ी वाला कहते हैं, वे ठोस कचरे के प्रबंधन में हिस्सेदार हो सकते हैं? लेकिन इस मोरचे पर बड़ी बाधा निहित स्वार्थो से निपटने की है. मौजूदा सरकार ने कई सरकारों द्वारा बीते सालों में पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किये गये उपायों पर पानी फेरना शुरू कर दिया है. प्रदूषण के मानकों में ढीलाई बरती गयी है, प्रदूषण की निगरानी के लिए बनाये गये संस्थानों को कमजोर किया जा रहा है.तीसरी बात, साफ-सफाई के काम की कलंक-मुक्ति की है. हम सफाई-पसंद लोग हैं, लेकिन खुद सफाई करने की बात पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं. यह राष्ट्रीय पाखंड है. घरेलू कामगार तक, अगर वे सफाई कामगार समुदाय से न हुए तो, सफाई के काम को ओछा समझते हैं.

गांधीजी सोचते थे कि जाति-व्यवस्था से बगैर लड़े सफाई के काम को कलंक-मुक्त किया जा सकता है, लेकिन हमें गांधी की इस सोच से किनारा करते हुए, इस मामले में आंबेडकर की सीख पर चलना होगा. सफाई के काम को कलंक-मुक्त करने के लिए जाति-व्यवस्था में गड़ी इसके नाभिनाल को तोड़ना होगा. इसके लिए जरूरी है कि परंपरागत तौर पर साफ-सफाई के काम में लगे जाति-समुदाय की नयी पीढ़ियों को बेहतर से बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर हासिल हों.इसके अतिरिक्त सफाई कर्मचारियों के कामकाज की स्थिति पर ध्यान देना राष्ट्र की प्राथमिकताओं में शामिल किया जाना चाहिए. देश भर में सफाई कर्मचारियों को ठेके या फिर अस्थायी किस्म की नौकरी पर रखने का चलन है. उन्हें मेहनताना कम मिलता है और नौकरी से जुड़ी कोई सुरक्षा हासिल नहीं रहती. सीवरों की सफाई करनेवालों की दयनीय स्थिति राष्ट्रीय शर्म की बात है.

काम के लिए जिस किस्म के सुरक्षा-उपकरण अग्निशामक दस्ते में शामिल लोगों को दिये जाते हैं, वैसे ही उपकरण सीवरों की सफाई करनेवालों को दिये जाने चाहिए. मैला ढोने और हाथ से साफ करने की प्रथा फौरन से पेशतर खत्म की जानी चाहिए. वेजवाड़ा विल्सन ने फोन पर मुझसे कहा कि कानून बन जाने और कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार इससे अपने कदम कैसे पीछे खींच सकती है? सवाल यह है कि क्या स्वच्छता अभियान मैला ढोने सरीखी अपमानजनक प्रथा को खत्म करने का अवसर बन सकता है?इस सिलसिले में आखिरी बात अपने मन की सफाई की है. सच यह है कि छुआछूत अब भी हमारे दिल-ओ-दिमाग से निकला नहीं है.

छुआछूत की भावना भारत के उस हिस्से में मौजूद है, जो अपने को आधुनिक और कॉस्मोपॉलिटन कहता है. भंगी और मेहतर कह कर पुकारे जानेवाले लोग अब भी छुआछूत की इस भावना के शिकार हैं. स्वच्छ भारत अभियान एक माकूल अवसर है, जब सफाई-कर्मचारी समुदाय से राष्ट्रीय स्तर पर क्षमा मांगी जाये और आगे के लिए अपने मन को साफ रखने का संकल्प लिया जाये. प्रधानमंत्री स्वयं इस मामले में हमारा नेतृत्व कर सकते हैं. लेकिन, क्या वे ऐसा करेंगे?

(लेखक आम आदमी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता हैं और फिलहाल सीएसडीएस से छुट्टी पर हैं)

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